श्यामा श्याम समिति अल्पाइन रेजीडेंसी ज़ीरकपुर, जगद्गुरु कृपालु परिषत की शाखा है जोकि जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज जी की प्रमुख प्रचारिका सुश्री अखिलेश्वरी देवी जी द्वारा संचालित है । इस संस्था का नामकरण महाराज श्री ने स्वं किया था।
श्यामा श्याम समिति का लक्ष्य है :
श्री कृपालु तत्वदर्शन
जीव का परम लक्ष्य आनंद प्राप्ति ही है । आनंद प्राप्ति पर ही त्रिकर्म, त्रिदोष, पंचक्लेश, पंचकोष आदि सब दुःख मिट जाएंगे ।
आनंद अवं भगवान पर्यायवाची शब्द हैं । अर्थात भगवान् को प्राप्त करके ही आनंद प्राप्त किया जा सकता है ।
भगवान की प्राप्ति केवल उनकी कृपा द्वारा ही हो सकती है । जिसपे वो कृपा करदें उसे भगवद प्राप्ति हो जाती है ।
जो गुरु द्वारा बताई साधना भक्ति करके अपने मन को शुद्ध कर लेता है, भगवान उस पर कृपा करके अपनी प्राप्ति करवा देते हैं ।
भक्ति केवल मन को ही करनी है । निष्काम अनन्य भाव से मन के द्वारा नित्य भक्ति करनी है ।
इस प्रकार मन शुद्ध होने पर सवरूप शक्ति द्वारा गुरु मन को दिव्य बनाकर भगवान का नित्य दासत्व अधिकार दिला देते हैं ।
श्री कृपालु तत्वदर्शन
11.11.2013 - "मन करू सुमिरन राधे रानी के चरण" पर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया अंतिम भाषण ।
हम लोगो के सामने कवल एक प्रश्न है कि हम जो चाहते हैं वो कैसे मिलेगा । बस एक प्रश्न । हम देखते हैं थोड़ा सा जगत । अनंत का एक बिंदु, बस इतना बड़ा । इसमें तीन आहार विहार वाले प्राणी हैं - जलचर, भूचर, खेचर ।
हम लोगों के सामने केवल एक प्रश्न है की हम लोग हैं कौन, और चाहते क्या हैं, और वो मिलेगा कैसे। बस एक प्रश्न। संपूर्ण विश्व में जो भी चहलपहल, हलचल चल रही है उन सबका एक ही प्रश्न है - हम कौन हैं ।
"श्री कृष्ण कौन हैं?" - 11 अगस्त 2012 को प्रेम मंदिर में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया सार्वजनिक भाषण जिसे आस्था चैनल पर लाइव टेलीकास्ट किया गया । आज से 5,238 वर्ष पहले भगवान् श्री कृष्ण का अभिर्भाव हुआ था और 125 वर्ष तक हमारे इस मृत्यु लोक में रहे थे ।
"कौन है राधा रानी?" - जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 24 सितंबर 2012 को प्रेम मंदिर में दिया गया सार्वजनिक भाषण जिसे आस्था चैनल पर लाइव टेलीकास्ट किया गया । श्री कृष्ण और राधा एक ही तत्व हैं । यह लीला के लिए दो बन गए हैं । एक ही तत्त्व दो बन गया है ।
केवल मानुष तन धारी जीव ही भगवान को जान सकता है । वेद कहता है, अरे मनुष्यो मानव देह प्राप्त करके जल्दी से जल्दी उसको जान लो; नहीं तो महान हानि होगी । पुनः वेद कहता है - अगर इस देह को प्राप्त करके ईश्वर को नहीं जाना, तो करोड़ों कल्प चौरासी लाख योनिओं में भटकना होगा।
बुनियादी ज्ञान
हर दोष की दवा है ज्यों-ज्यों अन्तःकरण भगवान् में अटैच्ड होगा त्यों-त्यों शुद्ध
होगा । जितनी लिमिट में शुद्ध होगा , उतनी लिमिट में काम , क्रोध , लोभ , अहंकार ये
सब माया के दोष कम होते जायेंगे । और जब कम्पलीट सरेण्डर हो जायगा तो समाप्त हो
जायेंगे । एक दोष चला जाय एक रहे ऐसा नहीं हो सकता । ये सब माया के परिवार हैं और
इनका परस्पर सम्बन्ध है । इसलिये एक नहीं जायगा । सारे रोगों का जो मूल है वो है
कामना , इच्छा बनाना संसारी हो चाहे पारमार्थिक हो । हमने इच्छा बनाया बस फंस गये ।
अब अगर इच्छा पूरी होती है तो लोभ पैदा होगा और नहीं पूरी होती है तो क्रोध पैदा
होगा । आगे हम चले गये फंसते हुए अब बच नहीं सकते चाहे कितना ही बड़ा बुद्धिमान
बृहस्पति क्यों न हो ।
तो संसार सम्बन्धी कामना को डायवर्ट करके भगवान् सम्बन्धी कामना बनाने का अभ्यास कर
ले तब जड़ खतम हो तो सारी बीमारी खतम हो गई । ऊपर ऊपर से हमने पत्ते तोड़ दिये कुछ
डालें काट दीं इससे पेड़ समाप्त नहीं होगा बल्कि वो और बलवान होगा ।
श्री महाराजजी द्वारा उत्तर: देते हैं । अधिकारी को देते हैं। दीक्षा माने समझते हो ? दीक्षा माने दिव्य प्रेम । वो दिव्य प्रेम पाने के लिये दिव्य बर्तन चाहिए। यानि दिव्य अन्तःकरण । ये अंतःकरण जो है, ये मायिक है, प्राकृत है, ये दिव्य प्रेम को सहन नहीं कर सकता। किसी भिखारी की एक करोड़ की लाटरी खुल जाती है तो हार्टफेल हो जाता है उसका। तो अनन्त आनन्दयुक्त जो प्रेम है, वह प्राकृत अन्तःकरण में नहीं समा सकता। तो पहले अन्तःकरण शुद्धि करनी होगी। ये बाबा लोग आजकल जो ठगते हैं लोगों को कान फूँक- फूँक करके, ये सब वेद विरुद्ध है। ये पाप कर रहे हैं, उनको सबको नरक मिलेगा, हजारों- लाखों वर्ष का। और ये जो कान फुँकाते हैं, इन मूर्खों को इतनी समझ नहीं है कि गुरु जी से पूँछे कि आप क्या दे रहे हैं ? मंत्र ! ये मन्त्र का क्या मतलब है ? हरेक मंत्र का यह अर्थ है कि हे भगवान् ! आपको नमस्कार है । वो अगर हिन्दी में कहें , उर्दू में कहें, पंजाबी , बंगाली , मद्रासी में कहें , तो भगवान् खुश नहीं होंगे ? और फिर अगर तुम कहते हो हमारे मंत्र में पॉवर है, तो तुमने जब कान में दिया तो उस पॉवर की फीलिंग क्यों नहीं हुई। मामूली से करेन्ट को छूने से तो सारा शरीर काँप जाता है और तुम स्प्रिचुअल हैप्पीनेस दिव्यानन्द दे रहे हो कान में, और हमको कोई फीलिंग नहीं। हमारी हालत और फटीचर होती जा रही है । और कान फुँकाये बैठे हैं। तो फिर तुमने क्या दिया ? ये सब धोखा है। पहले भक्ति करनी होगी। जब अन्तःकरण शुद्ध हो जायगा, तब गुरु एक पॉवर देगा, तब अन्तःकरण दिव्य बन जायगा , तब भगवत्प्रेम मिलेगा फिर भगवत्प्राप्ति, माया निवृत्ति , सब इकठ्ठा काम खत्म । अरे तमाम मंत्र तो लिखे हैं , पुस्तकों में, वो कान में क्या दे रहे हैं ? हजारों मंत्र शास्त्रों में, भागवत वगैरह सबमे लिखे हैं, कोई भी पढ़े अपना जपे, उससे क्या होगा ?
अरे! पा रहे हो तो क्या भगवान दे रहे हैं? मनुष्य को दुःख नहीं मिल रहा है संसार में। दुःख तो बहुत कम है प्रारब्ध का, 1% भी नहीं है। यह अपनी मूर्खता से मनुष्य दुःखी हो रहा है। दुःख कहीं बाहर से नहीं आता है। एक व्यक्ति है; माँ से प्यार किया, बाप से प्यार किया, बेटे से प्यार किया, बीवी से प्यार किया। अब उसके दुःख में दुःखी हो रहा है। उसके मरने पर दुःखी होओ, क्यों प्यार किया? वेद कहता है भगवान से प्यार करो। तुम्हारी गलती है, attachment करो फ़िर रोओ। यह तो तुमने दुःख बुलाया है, यह प्रारब्ध का थोड़ी है। प्रारब्ध का तो कभी कभी आता है। यह तो अपने ही क्रियमाण कर्म का है। अपने जो reaction हैं मन के, attachment का। किसी ने अधिक किया उसको अधिक दुःख, किसी ने कम किया उसको कम दुःख, किसी ने और कम किया उसको और कम दुःख। जैसे हमारी कोई निन्दा करता है तो अहंकार के कारण हमको दुःख होता है। यह तो तुमने बीमारी पाल ली अपने आप। तुम जानते हो कि हम अनन्त जन्म के पापात्मा हैं, अल्पज्ञ हैं, अज्ञानी हैं, सब तरह की गड़बड़ है। हाँ, मालूम है। तो क्यों feel करते हो? किसी ने कह दिया कामी हो, क्रोधी हो, लोभी हो, क्यों बुरा मानते हो? यह तुम्हारी गलती है न? तो दुःख तो तुमने बुलाया है। दुःख प्रारब्ध का ऐसा कुछ नहीं है, बहुत कम है। दाल में नमक के बराबर। इसी मनुष्य जन्म में तो तुलसी, सूर, मीरा हुए हैं, दुःख नहीं पा रहे हैं। तुम लोग ऐसा क्यों नहीं करते? अब कोई आदमी अपने हाथ से मारने चले, पत्थर मार ले और कहे - 'हमको दुःख मिल रहा है।' कीचड़ में पैर डाल दिया और चिल्ला रहा है - 'गंदा हो गया, पानी लाओ, तौलिया लाओ....।' अरे तो क्यों डालते हो कीचड़ में पैर को? हम को साहब ज्ञान नहीं था हम आत्मा हैं और हमारा लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है। तो क्यों नहीं ज्ञान प्राप्त किया? मनुष्य किसलिए बनाये गए हो तुम? प्राप्त करो ज्ञान, तदनुसार आचरण करो, अभ्यास करो, कोई दुःख नहीं होगा। अरे जहाँ attachment होता है उसी के वियोग में दुःख होता है। जब कहीं तुम संसार में सुख न मानो तो कहीं दुःख नहीं मिलेगा। सुख मानना - यह तुम्हारा काम (गलती) है। छोटा सा बच्चा है अभी दो महीने, 4-6 महीने का। गाली दो तो कोई असर नहीं, हँस रहा है। पाखाना गंदा सब पड़ा हुआ है, उसी में अपना पैर उठा उठा के किलकारी मार रहा है। हम दुःखी जो होते हैं वह अपने कारण होते हैं। संसार में न सुख है न दुःख।
श्री महाराजजी से प्रश्न:- महाराजजी- केवल धन की सेवा से भी लक्ष्य प्राप्ति हो सकती
है। यानि गुरु की धन की सेवा की जो आज्ञा है और वो पूरी जी जान से आदमी करता रहे,
तो उससे भी भगवदप्राप्ति हो सकती है केवल अगर वही आज्ञापालन कर ली जाय तो?
श्री महाराजजी द्वारा उत्तर:- नहीं। मेन बात तो शरणागति की है बिना मन की शरणागति
के तन और धन से काम नहीं चलेगा। मन की शरणागति मेन पॉइंट। उसके बाद हैं ये सब। यानि
मन का पूर्ण सरैंडर, पूर्ण शरणागति यह नंबर एक। उसके हेल्पर हैं शरीर से सेवा, धन
से सेवा और फिर एक रीज़न ये भी है कि तन की सेवा सबको नहीं मिल सकती हमेशा। धन की
सेवा सब नहीं कर सकते। बहुत से हैं उनकी रोटी-दाल का ही ठिकाना नहीं है अपना, वो
कैसे करेंगे? लेकिन मन की शरणागति सब कर सकते हैं, वो प्रमुख है उसके बिना काम नहीं
चलेगा। इतने सारे मंदिर बनवा दिये हैं सेठ जी ने, धन से। लेकिन इससे कुछ नहीं होता।
पाप से पैसा इकट्ठा करके मंदिर खड़ा कर दिया और उसमें अपना नाम लिख दिया। वह सेठ जी
का मंदिर है कि भगवान का मंदिर है। ऐसे लोगो को नरक के सिवाय क्या मिलेगा। तो धन की
सेवा क्या हुई? सेवा में श्रद्धा, भगवदभावना का मिक्सचर होना चाहिये और जहाँ अपनी
प्रतिष्ठा का सवाल है वह सेवा कहाँ है? वह तो इनकम टैक्स से बचने का उपाय है।
श्री महाराजजी से साधक का प्रश्न: जब हम अपने दोस्त,रिश्तेदार आदि को भगवद विषय
समझाने का प्रयत्न करते हैं तब समझने के बजाय कभी-कभी वे और अकड़ जाते हैं। इससे हमे
बहुत दुख होता है। ऐसे में हम क्या करें?
श्री महाराजजी द्वारा उत्तर: अश्रद्धालु एवं अनाधिकारी से अपने मार्ग अथवा साधना
आदि के विषय में वाद-विवाद करना भी कुसंग है,क्योंकि जब अनाधिकारी को सर्वसमर्थ
महापुरुष भी आसानी के साथ बोध नहीं करा पाता,तब साधक भला किस खेत की मूली है। यदि
कोई परहित की भावना से भी समझाना चाहता है,तब भी उसे ऐसे नहीं करना चाहिए,क्योंकि
अश्रद्धालु होने के कारण उसका विपरीत ही परिणाम होगा। साथ ही अश्रद्धालु के न मानने
पर साधक का चित्त अशांत हो जाता है। शास्त्रानुसार भी भक्तिमार्ग को लेकर वाद-विवाद
करना घोर पाप है। अतएव न तो वादविवाद सुनना चाहिए,न तो स्वयं करना चाहिए। यदि
अनाधिकारी जीव इन विषयों को नहीं समझता ,तो इसमें आश्चर्य या दुख भी नहीं होना
चाहिए,क्योंकि कभी तुम भी तो नहीं समझते थे। यह तो परम सौभाग्य महापुरुष एवं भगवान
की कृपा से प्राप्त होता है कि जीव भगवदविषय को समझकर उसकी और उन्मुख हो। अनाधिकारी
को भगवदविषयक कोई अंतरंग रहस्य भी न बताना चाहिए,क्योंकि वर्तमान अवस्था में
अनुभवहीन होने के कारण अनाधिकारी उन अचिंत्य विषयों को नहीं समझ सकता। उलटे अपराध
कमाकर अपनी रही सही अस्मिता को भी खो बैठेगा। साथ ही अंतरंग रहस्य बताने वाले साधक
को भी अशांत करेगा।
दान चार प्रकार का होता है - भगवान् और महापुरुष के लिये जो करे वो निर्गुण है ,
देवताओ के लिये जो करे वो सात्विक है , मायिक मनुष्यों के लिये तो आप करते ही हैं ।
ये बाप के लिये , ये बेटा - बेटी के लिये । ये राजसिक और अगर अापने गलत पात्र में
दे दिया पैसा तो नरक भी मिलेगा ।
अरे ! तो हम कैसे जाने कि गलत पात्र है ? ये तो आपको जानना पड़ेगा । या तो दान मत
करो बिना जाने और करो तो समझ करके करो । गलत पात्र में अापने दान दिया । उसने उस
पैसे से रिवॉल्वर खरीदा और चार के गोली मार दी । आप पैसा न देते तो रिवॉल्वर न
खरीदता । तो गलत जगह दान देना , नरक मिलेगा । तो तामस दान , राजस दान , सात्विक दान
तीनों गलत । केवल हरि और हरिजन ( भगवान् और महापुरुष ) ये दिव्य है , शुद्ध हैं
इनको करने से ही भगवत् लाभ मिलेगा ।
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