जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
का जन्म सन् 1922 ई० में शरत्पूर्णिमा की शुभ रात्रि में भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त
के प्रतापगढ़ जिले के मनगढ़ ग्राम में सर्वोच्च ब्राह्मण कुल में हुआ।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मनगढ़ एवं कुण्डा में सम्पन्न हुई। पश्चात् इन्होंनें इंदौर,
चित्रकूट एवं वाराणसी में व्याकरण, साहित्य तथा आयुर्वेद का अध्ययन किया।
सोलह वर्ष की अत्यल्पायु में चित्रकूट में शरभंग आश्रम के समीपस्थ बीहड़ वनों में एवं
वृन्दावन में वंशीवट के निकट जंगलों में वास किया।
श्रीकृष्ण प्रेम में विभोर भावस्थ अवस्था में जो भी इनको देखता वह आश्चर्यचकित होकर यही
कहता कि यह तो प्रेम के साकार स्वरूप हैं, भक्तियोगरसावतार हैं। उस समय कोई यह अनुमान
नहीं लगा सका कि ज्ञान का अगाध, अपरिमेय समुद्र भी इनके अन्दर छिपा हुआ है क्योंकि
प्रेम की ऐसी विचित्र अवस्था थी कि शरीर की कोई सुध-बुध नहीं थी, घंटों घंटों मूर्च्छित
रहते। कभी उन्मुक्त अट्टहास करते तो कभी भयंकर रुदन। खाना पीना तो जैसे भूल ही गये थे।
नेत्रों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित होती रहती थी, कभी किसी कंटीली झाड़ी में वस्त्र
उलझ जाते, तो कभी किसी पत्थर से टकरा कर गिर पड़ते, किन्तु धीरे-धीरे अपने इस दिव्य
प्रेम को गोपन करके श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार करने लगे। अब प्रेम के साथ-साथ ज्ञान का
प्रकटीकरण भी होने लगा।
सन् 1955 में इन्होंनें चित्रकूट में एक विराट दार्शनिक सम्मेलन का आयोजन किया था,
जिसमें काशी आदि स्थानों के अनेक विद्वान सम्मिलित हुये। सन् 1956 में ऐसा ही एक विराट
सन्त सम्मेलन इन्होंनें कानपुर में आयोजित किया था। इनके समस्त वेद शास्त्रों के
अद्वितीय, असाधारण ज्ञान से वहाँ उपस्थित काशी के मूर्धन्य विद्वान् स्तम्भित रह गये।
उस समय इनके सम्बन्ध में काशी के प्रख्यात पण्डित, शास्त्रार्थ महाविद्यालय (काशी) के
संस्थापक, शास्त्रार्थ महारथी, भारत के सर्वमान्य एवं अग्रगण्य दार्शनिक, काशी
विद्वत्परिषत् के प्रधानमंत्री आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल 'षट्शास्त्री' ने
सार्वजनिक रूप से जो घोषणा की थी, उसका अंश इस प्रकार है —(कानपुर, 19.10.56)
"काशी के पण्डित आसानी से किसी को समस्त शास्त्रों का विद्वान् नहीं स्वीकार करते।
हम लोग तो पहले शास्त्रार्थ के लिये ललकारते हैं।
हम उसे हर प्रकार से कसौटी पर कसते हैं और तब उसे शास्त्रज्ञ स्वीकार करते हैं।
हम आज इस मंच से इस विशाल विद्वन्मण्डल को यह बताना चाहते हैं कि हमने सन्ताग्रगण्य
श्री कृपालु जी महाराज एवं उनकी भगवद्दत्त प्रतिभा को पहचाना है और हम आपको सलाह
देना चाहते हैं कि आप भी इनको पहचानें और इनसे लाभ उठायें।
आप लोगों के लिये यह परम सौभाग्य की बात है कि ऐसे दिव्य वाङ्गमय को उपस्थित करने
वाले एक सन्त आपके बीच में आये हैं।
काशी समस्त विश्व का गुरुकुल है।
हम उसी काशी के निवासी यहाँ बैठे हुये हैं।
कल श्री कृपालु जी के अलौकिक वक्तव्य को सुनकर हम सब नत-मस्तक हो गये।
हम चाहते हैं कि लोग श्री कृपालु जी महाराज को समझें और इनके सम्पर्क में आकर इनके
सरल, सरस, अनुभूत एवं विलक्षण उपदेशों को सुनें तथा अपने जीवन में उसे क्रियात्मक
रूप से उतारकर अपना कल्याण करें।"
इसके पश्चात् इनको काशी विद्वत्परिषत् (भारत के लगभग 500 शीर्षस्थ शास्त्रज्ञ, वेदज्ञ
विद्वानों की सभा) ने काशी आने का निमन्त्रण दिया। केवल 34 वर्षीय श्री महाराज जी को
वयोवृद्ध विद्वानों के मध्य देखकर कुछ भावुक भक्त कहने लगे—
उदित उदय गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग
श्री कृपालु जी के कठिन संस्कृत में दिये गये विलक्षण प्रवचनों को सुनकर एवं भक्तिरस से
ओतप्रोत अलौकिक व्यक्तित्व को देखकर सभी विद्वान् मंत्रमुग्ध हो गये। उन्होंनें स्वीकार
किया कि ये केवल वेदों, शास्त्रों, पुराणों के मर्मज्ञ ही नहीं हैं अपितु प्रेम के
साकार स्वरूप भी हैं। तब सबने एकमत होकर इनको
"जगद्गुरूत्तम"
की उपाधि से विभूषित किया। उन्होंनें घोषित किया कि श्री कृपालु जी को
'जगद्गुरूत्तम'
की पदवी से सुशोभित किया जा रहा है।
...धन्यो मान्य जगद्गुरूत्तमपदैःसोऽयं समभ्यर्च्यते।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज इतिहास के पाँचवें मूल जगद्गुरु हैं। अतीत में केवल चार संतों को मूल जगद्गुरु के रूप में स्वीकृति मिली है, वे थे— जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य, जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य तथा जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य।